जिस सायबां ने बख्शी , हम सब को ये बुलंदी ,
मज़बूत उसकी नीव को, अब फिर से बनाना है !

क्या क्या नहीं है पाया , हम सब ने इस ज़मीं से ,
कितनी धरा ये पावन , ये सबको दिखाना है !

हर पल में नए सीखे , दुनिया से सबक़ हमने ,
हँसना जो यहाँ सीखा , वो सबको सिखाना है !

कर्मों में हम सभी के , मिट्टी यहाँ की महके ,
ख़ुशबू को इस चमन की , दुनिया से मिलाना है !

नज़रों में कोंपलों की , सपने नए उगे हैं ,
सपनों को आज उनके , हमें पंख लगाना है !

रवि और खुर्रम ; दिल्ली : २१ अप्रैल २०१३