है ये कैसा विश्वास !
प्रतिपल मर कर भी है
क्यूँ नवजीवन की आस
है ये कैसा विश्वास !

वही एक जीवन नहीं मिला
जन्म से जिसको जाना था
वही एक सूरत नहीं दिखी
जिसे बस मैंने पहचाना था
फिर भी ……
क्यूँ मन होता नहीं निराश !

है ये कैसा विश्वास !

तप्त चाँदनी की ये किरणे
मन को हैं झुलसाती मेरे
तारों की ये ऐसी झिलमिल
तन में है चुभ जाती मेरे
फिर भी ……
क्यूँ प्रिय लगती ये रात !

है ये कैसा विश्वास !

युगों से लगते अपने जो
उनको ही मैंने भुला दिया
सपनों को इन रातों में ही
मैंने थपकी देकर सुला दिया
फिर भी …….
क्यूँ मधुर मिलन की आस !

है ये कैसा विश्वास !!

रवि ; रुड़की १९८२